Friday, April 17, 2020
मुंबई की मज़बूर अवाम
लेख: ज़ैनुलआबेदीन नदवी
अनुवाद: मो० साबिर हुसैन नदवी
लाक डॉउन का इकिसवां और आख़री दिन था, हिन्दुस्तान के अनेक एलाकौं में ख़ास तौर पर अरूसुल बिलाद कहे जाने वाले शहर मुंबई में घिरे हुए लोग अपने वतन वापस जाने के अरमान लिए हुए थे, मज़दूर पेशा, मजबूर तबक़ा जिस के पास न तो खाने को ग़िज़ा /अन्य है और न ही रहने को मकान, होटलों के सहारे जीने वाले, किराया की छत तले रहने वाले बेकस वह बेबस लोग यह समझ रहे थे कि १४ अपरील को वहअपने अपने घर रवाना होंगे और वादीए मौत से बच निकलेंगे जहां कोरोना से ज्यादा भुखमरी का क़हर आन पड़ा है,मगर देखते ही देखते तुग़लक़ी फ़रमान जारी होता है और लाक डॉउन की अवधि में और बढ़ोतरी कर दी जाती है,न तो ग़रीबों की ग़रीबी पर बात की जाती है और न ही उन की परेशानी का कोई हल बताते हुए उन की बे कसी व बे बसी का मदावा तलाश किया जाता है, जिस का लाज़मी नतीजा यह था कि लोग सड़कों पर आऐं और अपने जाएज़ मोतालबात की मांग करैं,ऐसा ही हुआ, बांद्रा, मुम्ब्रा और सूरत की अवाम सड़कों पर आ गई, और अपने वतन जाने की मांग करने लगी, जिस का जवाब ऐसी बरबरता और कुरूरता से दिया गया कि इतिहास कभी माफ़ नहीं करेगा,उन पर लाठी चार्ज की गई और इस समाजिक इन्सानी मामले को धार्मिक रंग देते हुए मुसलमानों के ख़िलाफ़ ज़हर घोलने की नापाक कोशिश की गई, हुकूमत और वर्दी के नशे में उन बेगुनाह इनसानौं के साथ जो ना मुनासिब सुलूक अपनाया गया उस की जितनी निन्दा की जाय कम है हमें ऐसी हुकूमत और हुकूमती स्टाफ़ के ख़िलाफ़ आवाज उठानी चाहिए,हम ख़ामोश कियौं हैं?यह दरिंदगी और जानवरपन कब तक बर्दाश्त किया जाय गा?उन पर लाठियां तो ऐसी बरसाईं जाती हैं जैसे वह कोई क़ातिल और मुजरिम हों, किया उन का जुर्म सिर्फ यही है कि वह अपने घरों से दूर हैं, मजबूर हैं, ग़रीब हैं और अपने घर जाना चाहते हैंह़क तो यह था कि उन की बात सुनी जाती और उनकी उम्मीदों पर पानी फेरने के बजाय उन को भेजने का कोई रास्ता निकाला जाता,उन के साथ प्यार वो मोहब्बत का मामला किया जाता, लेकिन नहीं साहब, हुकूमत ने यह ठान लिया है कि वह ग़रीबों के बदन में बाक़ी बचा हुआ ख़ुन भी चूस कर रहेगी,न तो उन के जाने का रास्ता निकाले गी और न ही उनके पेट का प्रबंध करेगी,अब उन मज़दूरों के पास सिवाय मौत के और कोई चारा नहीं,हां उन्हें एख़तेयार है चाहे भूख से मरैं या बिमारी से, लेकिन हर हाल में मरना ही है, मुम्बई के हालात मालूम करने पर पता चला कि मज़दूरी करने वाले ज्यादातर वह लोग हैं जो होटलों के सहारे जीते हैं और अब तमाम होटल बन्द हैं,खाने को कुछ मोयस्सर नहीं, कुछ लोग खाना बांटते हैं तो सिर्फ हलदी पावडर पानी, और चावल के सिवा कुछ नहीं रहता जो ह़लक़ से उतारे नहीं उतरता,न जाने कितनी जानैं जा चुकी हैं और कितनौं ने ख़ुद कुशी कर ली है , सोशल मीडिया पर वायरस विडियोज़ देखे नहीं जाते, आख़िर उन मज़दूरों के साथ हमदर्दी का कोई रास्ता तो होना चाहिए या सिर्फ घरौं में ही बैठ कर जान देने की तरग़ीब दी जाए गी
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