Monday, April 27, 2020
रोजा और पवित्र पैगंबर का मामूल
लेख:आसिम ताहिर आज़मी
अल्लाह ने अपनी शरीअत में रहस्य, आदेशों में हिकमतें और ख़िलक़त में कुछ न कुछ मक़ासिद छिपा रखे हैं, कुछ रहस्य व हिकमत और मक़ासिद तो ऐसे होते हैं, की इंसानी ज़ेहन और अक्ल उनको समझ लेते हैं और कुछ ऐसे होते हैं जहाँ इंसानी दिमाग़ आजिज़ व दर्मान्दाह हो जाते हैं । अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने रोज़ह की कुछ हिकमतें बयांन की हैं, इरशाद है :
’’یَا أَیُّہَا الَّذِیْنَ آمَنُوْا کُتِبَ عَلَیْکُمُ الصِّیَامُ کَمَا کُتِبَ عَلَی الَّذِیْنَ مِنْ قَبْلِکُمْ لَعَلَّکُمْ تَتَّقُوْن‘‘۔
(सूरे बक़रह : १८३ )
तर्जमा :ऐ इमान वालो ! तुम पर रोज़ह फ़र्ज़ किया गया है , जिस तरह तुम से पहले लोगों पर फ़र्ज़ किया गया था , इस उम्मीद पर की तुम मुत्तक़ी बन जाओ।
मालूम हुआ की रोज़ह तक़वा का एक ज़रीया है , और रोज़ह दार अपने मालिक से बाहुत करीब होता है , रोज़ह दार का पेट चूँकि खली होता है, इस लिए उसका दिल पाकीज़ह हो जाता है। उसका जिगर चूँकि प्यासा होता है इस लिए उसकी आँख में आंसू होते हैं। सही हदीस में है। इरशाद नबवी है:
तरजमा: ए नौजवानों की जमात ! तुम में से जो शख्स निकाह की ताक़त रखे वह निकाह कर ले क्यूंकि निकाह निगाह को नीचे करती है। शर्म गाह की हिफाज़त करती है। और जो शख्स निकाह की ताक़त न रखे उसको रोज़ा रखना चाहिए। क्यूंकि रोज़ा शहवत को ख़त्म करता है.
रोज़ा,खाने और खून की जगहों में तंग कर देता है। चूँकि उन जगहों में शैतान रहता है। चुनांचह रोज़ह की वजह से बुरी सोच में कमी आ जाती है ।
रोज़ा- शहवत और बुराई के अंदेशों पर रोक लाग कर रूह को मुनव्वर और रोशन करता है।
रोज़ह एक रोज़ह दार को भूके , मुहताज और गरीब रोज़ह दरों की याद दिलाता है। इसलिए वह उन पर रहम व करम करता है और उनके साथ मदद का हाथ बढ़ाता है। शायर कहता है :
तर्जमा : ऐ रोज़ह दार , तूने सिर्फ अल्लाह के खौफ में खाना छोड़कर भूक और प्यास की दोस्ती अपनाई क़यामत के दिन तेरे लिए रहमत की खुशखबरी है। तु नेकियों और नेमतों में खड़ा होगा।
रोज़ह नफ़्स की तरबियत, दिल की सफाई , निगाहों और आज़ा ( हाथ, पैर , मुंह , नाक , कांन , आँख वगैरह ) की
हिफाज़त के लिए एक बेहतरीन मदरसा के जैसा है।
रोज़ह बन्दे और ईश्वर के बीच एक राज़ है। इसलिए हदीस क़ुदसी है : अल्लाह अज़ व जल (सर्वशक्तिमान ईश्वर) का फरमान है : इंसान का हर अमल उसके लिए है , रोज़ह के इलावा, क्यूंकि रोज़ह मेरे लिए है और मैं ही उसका इनाम दूंगा।
और ऐसा इसलिए की रोज़ह एक ऐसा अमल है जिस को सिर्फ अल्लाह ही जानते हैं, जबकी नमाज़ , ज़कात और हज का मामला ऐसा नहीं है।
सल्फ़े सलिहीन( पूर्वजों ) , रोज़ह को अल्लाह से करीब करने, हर खैर की तरफ आगे बढ़ने का मैदान और तमाम भलाइयों का मौसम समझते थे। यही वजह है की रोज़े के इस्तेकबाल में खुशी की वजह से और रोज़े की जुदाई में रो पड़ते थे।
सल्फ़े सालिहीन (पूर्व धार्मिक गुरु) को रोज़े से हद दर्जा लगाओ था , इसी लिए वह रमज़ान में खूब मुजाहदह (संघर्ष ) अपने पूरे जी जान से उस में लग जाते। पूरी पूरी रात सजदह व रोने और खुशु खुज़ु में गुज़ार देते और दिन के ओकात में ज़िक्रो तिलावत , तालीम व दावत और नसीहत में मशगूल रहते।
सल्फ़े सालिहीन (पूर्व धार्मिक गुरु) रोज़े को आँखों की ठंडक दिल का सुकून और फितरी इत्मीनान का ज़रिया समझते। इस लिए वह रोज़े के मक़ासिद को सामने रख कर अपनी रूहों की तरबियत करते। उसकी तालीमात की रोश्नी में अपने दिलों को साफ करते और उसकी हिकमतों को सामने रखते हुए अपने नफ़्स को सवारने का फ़रीज़ा अंजाम देते।
सल्फ़े सालिहीन (पूर्व धार्मिक गुरु) के सही हालात में लिखा है की वह मस्जिदों में अपने अपने क़ुरानी नुस्खे ले कर बैठ जाते तिलावत करते जाते और रोते रहते,इस तरह उनकी ज़बानें और निगाहें हराम से महफूज़ भी हो जातीं।
तमाम रोज़े दार , मुसलमानो के लिए इत्तेहाद का मज़हर होते हैं। एक ही ज़माने में रोज़ह रखते हैं , एक ही वक़्त में इफ्तार करते हैं। एक ही साथ भूके होते है और एक ही साथ खाते भी हैं। यह सब उल्फत व मोहब्बत , भाई चारगी और वफादारी ही तो है। रोज़ह गलतियों को मिटाने वाला और बुराइयों को ख़तम करने वाला है, हदीस शरीफ में है। इरशादे नबवी है :
तर्जमा : एक जुमा दूसरे जुमा तक। एक उमरह दुसरे उमरह तक और एक रमज़ान दुसरे रमज़ान तक के तमाम गुनाहों को मिटा देता है , इस शर्त के साथ की कोई कबीरह गुनाह न किया जाए।
रोज़ह जिस्म को सेहत बख्शता है , गन्दगी को निकाल देता है , पेट को सुकून पहुँचाता है। खून को साफ़ करता है। दिल की हरकत मोतदिल (बराबर) करता है। रूह को इत्मीनान देता है। दिल को साफ़ सुथरा बनाता है। और अख़लाक़ को संवारता भी है।
रोज़ह दार जब रोज़े से होता है तो उसकी आत्मा में भक्ति उत्पन्न होती है। आत्मा में तवाज़ू आता है। इच्छाएं कम हो जाती हैं। इस वजह से उसकी प्रार्थना स्वीकार होती है। क्यूंकि रोज़ह दार को अल्लाह का क़ुरब नसीब हो जाता है। रोज़े की एक बहुत बड़ी हिकमत है। और वह अल्लाह की प्रार्थना का है। उसके आदेशों का पालन करना , और उसकी शरीयत के सामने सरे तस्लीम ख़म करना है। और सिर्फ रब की रज़ा हासिल करने के लिए खाने पीने की लज़्ज़त को छोड़ देना है।
रोज़े के ज़रिये एक मुसलमान अपनी इच्छााओं को पराजित करता है और खुद अपनी आत्मा पर काबू पता है , गोया रोज़ह आधे सब्र का नाम है। और अगर कोई शख्स बिला उज़्र शरई रोज़ह रखने से माज़ूर है तो वह कभी भी अपने आत्मा और ईच्छाओं पर काबू नहीं पा सकता है। रोज़े के ज़रिये नफ़्स एक ज़बरदस्त तजरुबा से गुज़रता है ,इस लिए जिहाद ,क़ुरबानी और अज़ीम कामों को अंजाम देने और हर आने वाली परेशानियों और मुशक़्क़तों को बर्दाश्त करने के लिए पूरे तौर पर तैयार हो जाता है ,यही वजह है की जब तालूत ने अपने दुश्मनों से जंग करना चाहा तो अल्लाह ने तालूत की क़ौम को नहर के ज़रिये आज़माया और तालूत ने उनसे कह दिया जैसा की क़ुरान कहता है :
’’فَمَنْ شَرِبَ مِنْہُ فَلَیْسَ مِنِّي وَمَنْ لَمْ یَطْعَمْہُ فَإِنَّہُ مِنِّی إِلاَّ مَنِ اغْتَرَفَ غُرْفَۃً بِیَدِہ‘‘۔
(सूरह बक़रह : २४९ )
तर्जमा : जो शख्स उस से पानी पीवे गा वह मेरे साथियों में से नहीं। और जो उसको ज़बान पर भी न रखे वह मेरे साथियों में से है;लेकिन जो शख्स अपने हाथ से एक चुल्लू भर ले।
(बयानुल क़ुरान : जिल्द १ पेज १६९ )
बस क्या था ! सब्र करने वाले और अपनी ख्वाहिशात पर ग़ालिब आने वाले कामियाब हो गए और अपनी फ़ितरतो और तबीयतों के ज़ोर के नीचे दब जाने वाले , ख्वाहिशात की गुलामी करने वाले जिहाद से पीछे हट गए।
रोज़े के फर्ज़ होने की हिकमतें बतौर खुलासा नीचे पेश की जाती हैं। ↴
रोज़े से अल्लाह का तक़वा नसीब होता है।
ख्वाहिशात पर ग़लबा नसीब होता है और नफ़्स काबू में आ जाता है।
एक मुसलमान ,मुसलमान होने की वजह से क़ुरबानी देने के वक़्त पर तैयार रहता है।
बॉडी पार्ट सब कण्ट्रोल में आ जाते हैं।
ख्वाहिशात पर सख्त ज़र्ब लगती है।
जिस्म को सेहत नसीब होती है।
गुनाह ख़तम होते हैं।
उल्फत , मोहबबत ,भाई चारगी, भूकों की भूक और ज़रुरत मंदों की जरूरत का एहसास होता है।
अल्लाह बेहतर जनता है :
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अरबी किताब : रोज़े दारों के ३० सबक
लेखक : शेख आईज़ अल-क़रनी
उर्दू अनुवाद : वसीउल्लाह सिद्धार्थ नगरी
हिंदी: हामिद अख्तर
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