Tuesday, May 12, 2020

रमजान की विशेषताएं एवं प्रमुख उपासनाए

लेखक : जफर अहमद खान
पहली बात : रमजानुल मुबारक एक पवित्र और बरकत वाला महीना है, इसे बहुत सारी विशेषताएं और कुछ प्रमुख गुण प्राप्त हैं, जिसका अंदाजा प्रेषित मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैही वसल्लम की हदीस से लगाया जा सकता है, हजरत अबू हुरैरा रजिअल्लाहू अन्हो का वर्णन है कि नबी ए करीम सल्लल्लाहू अलेही वसल्लम ने फरमाया "जो व्यक्ति ईमान की अवस्था में पुण्य की नियत से रमजान के रोजे रखता है उसके पिछले पाप बख्श दिए जाते हैं", रमजान का एक-एक क्षण अत्यंत महत्वपूर्ण और सआदतो वाला है, अर्थात अन्य ग्यारह माह मिलकर इसकी बराबरी नहीं कर सकते, इस लेख में इस माह की कुछ प्रमुख विशेषताएं और महत्वपूर्ण उपासनाओ (इबादत) का वर्णन करने की कोशिश की गई है, परमेश्वर हम सबको इसके अनुसार अमल करने की तौफीक अता फरमाए आमीन।


रोजा(उपवास, ब्रत): रमजान उल मुबारक की विशेष और महत्वपूर्ण इबादत रोजा इस्लाम के मूलभूत स्तंभों में से एक स्तंभ है, जैसा की हदीस में है, हजरत अब्दुल्लाह इब्ने उमर का वर्णन है वह फरमाते हैं मैंने रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलेही वसल्लम को फरमाते हुए सुना, "इस्लाम की नींव पांच चीजों पर रखी गई है, इस बात की गवाही देना कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई पूज्य नहीं और प्रेषित मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम अल्लाह के रसूल, है नमाज कायम करना, जकात अदा करना, हज करना, और रमजान उल मुबारक के रोजे रखना, यघपि एकेश्वरवाद (तौहीद) व रिसालत को मान लेने के बाद मनुष्य इस्लाम में दाखिल होकर मुसलमान कहलाने का हकदार हो जाता, है मगर उसका धर्म (दीन) उस वक्त तक पूर्ण नहीं होता जब तक वह अन्य स्तम्भों मानने के साथ उस पर अमल न करे, ऊपर वर्णित इस्लाम के अरकान में से किसी एक रुक्न का इनकार करते हुए उसको छोड़ देने वाला काफिर हो जाएगा, अलबत्ता सुस्ती और काहिली के कारण छोड़ने वाला कबीरा गुनाह का मुरतकिब और फासिक(पापी) होगा।


कुरान मजीद का अवतरण: रमजान उल मुबारक के महीने में ही अल्लाह ताला ने हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहू अलेही वसल्लम को मानव जाति के लिए इस्लाम के संदेश के साथ प्रेषित किया, और इसी पवित्र महीने में कुरान मजीद को अवतरित किया, जैसा कि अल्लाह ताला का फरमान है, "माहे रमजान वह महीना है जिसमें कुरान अवतरित किया गयाा, जो लोगों को सही राह दिखाने वाला है, और जिसमें हिदायत और सत्य असत्य की पहचान की निशानियां है, रमजान और कुरान की आपस में बड़ी समानताएं हैं, यह दोनों प्रलय के दिन बंदे के हक में सिफारिश करेंगे, रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलेही वसल्लम ने इरशाद फरमाया, "प्रलय (कयामत) के दिन रोजा और कुरान दोनों बंदे की सिफात करेंगे, रोजा कहेगा हे परमेश्वर, मैंने इस बंदे को दिन के समय खाने पीने और इच्छाएं पूरी करने से रोके रखाा, कुरान कहेगा कि मैंने इसको रात के समय सोने से रोके रखा तो आप मेरी इसके लिए शफाअत कुबूल कर लीजिए, तो यह दोनों बंदे की अनुशंसा करेंगे और उनकी अनुशंसा स्वीकार की जाएगी", (मुस्नद अहमद)।


पुण्य भाव में बढ़ोतरी: रमजानुल मुबारक पुन्य के भाव में बढ़ोतरी और बुलंदी  दरजात का महीना हैै, इस महीने में पुण्य का भाव बढ़ा दिया जाता है, नफिल का सवाब फर्ज के बराबर और फर्ज का सवाब सत्तर फर्ज के बराबर दिया जाता है


एक साल के पापों की क्षमा याचना: इस पवित्र महीने में साल भर के पापों की क्षमा का वादा है, प्रेषित मोहम्मद सल्लल्लाहो वसल्लम का फरमान है पाांचो नमाजे, हर जुमा दूसरे जुम्मा तक, और रमजान दूसरे रमजान तक दरमियानी मुद्दत के गुनाह माफ कर दिए जाते हैं, शर्त यह है कि बड़े-बड़े गुनाहों से बचा जाए, (मुस्लिम)।


गुनाहों का मिटा दिया जाना:  रोजा द्वारा गुनाहों को मिटा दिया जाता है, हजरत हुजैफा रजि अल्लाहु अन्हु फरमाते हैं कि हजरत उमर  ने पूछा कि फितने से सम्बंधित रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो वसल्लम की हदीस किसी को याद है, हुजैफा रजिअल्लाहु अन्हु ने कहा मैंने सुना है आप सल्लल्लाहो अलेही वसल्लम ने फरमाया था, मनुष्य के लिए उसके बाल बच्चे उसका माल और उसके पड़ोसी फितना आजमाइश और इम्तिहान है जिसका कफ्फारा नमाज रोजा और सदका बन जाता है,(बुखारी)।


रोजा ढाल है: हजरत अबू हुरैरा रजिि अल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि नबी अकरम सल्लल्लाहू अलेही वसल्लम ने फरमाय, रोजा एक डाल है इसलिए रोजेदार न गंदी बातें करें न जहालत वाला मामला करें, अगर कोई व्यक्ति उससे लड़ाई झगड़ा या गाली गलौज करें तो बस इतना कह दे कि मैं रोजेदार हूं मैं रोजेदार हूं, (बुखारी), ढाल हर बुरे काम हर नाफरमानी हर गुनाह और हर आजाब से, ढाल मानव की रक्षा के लिए है, इसकी पनाह में आया हुआ इंसान सीरत व किरदार की रोशन मिसाल होता है और नेकी के घेरे में रहता है।


रोजे का बेहिसाब पुण्य(सवाब): हजरत अबू हुरैरा रजि अलहु से अन्हु से रिवायत है वह अल्लाह के नबी सल्लल्लाहू अलेही वसल्लम से रिवायत करते हैं कि अल्लाह के नबी सल्लल्लाहो अलेही वसल्लम ने अल्लाह ताला से नकल किया कि अल्लाह तबारक व ताला फरमाता है, "हर अमल कफ्फारा है और रोजा मेरे लिए है मैं ही उसका बदला दूंगा और निसंदेह रोजेदार के मुंह के भू अल्लाह के नजदीक मुस्क की बू से भी ज्यादा है" अब सवाल यह है कि इसमें रोजेदार के मुंह की बू की जो फजीलत बयान की गई है वह क्यों? उसका कारण क्या है? शोधकर्ताओं के अनुसार इस बू की तारीफ इसलिए की गई है ताकि लोग रोजेदार के साथ बातचीत करने में बुरा न महसूस करें, पता चला कि हमें रोजेदार के मुंह की इस बू को ऐब नहीं समझना चाहिए, और उसे नागवार समझते हुए रोजेदारों से कटकर अकेलापन नहीं अख्तियार करना चाहिए।


फरिश्तों की दुआ: रोजेदार के लिए फरिश्ते इफ्तार के वक्त तक दुआ करते हैं, फरिश्ते अल्लाह की मासूम(गुुनाहोंसे पाक) मखलूक है, कभी परमेश्वर की अवज्ञा नहीं करते, हमेशा अल्लाह की आज्ञाकारी में लगे रहते हैं, उनकी दुआ कबूलियत के ज्यादा करीब होती, है रोजेदारों के हक में ऐसी नूरानी मखलूक का दुआ करना उम्मते मोहम्मदिया के मरतवे की बलन्दी को साबित करता है तो वहीं रोजे के महत्व को भी दर्शाता है।


रमजान धैर्य(सब्र)का महीना है: रमजान सब्र का महीना है और सब्र का फल जन्नत है, इसका मतलब यह है कि रोजेदार जब इस महीने में सिर्फ अल्लाह के लिए अल्लाह के हुक्म से और अल्लाह की खुशी के लिए अपनी पसंद की तमाम चीजें छोड़कर अपनी ख्वाहिशात को रोककर सब्र करता है, तो अल्लाहपाक ऐसी कुरबानी देने वाले बंदों को जन्नत की राहतें और लज्जतें अता फरमाएगा। इस लिए अगर रोजे वगैरह में कुछ कठिनाई हो तो उसे बहुत शौक से सहन(बर्दाश्त) करना चाहिए, गुस्सा और हंगामा करने से बचना चाहिए, झगड़े और गाली गलौज नहीं करना चाहिए, जैसा कि बहुत से लोगों की आदत होती है, अल्लाह ताला का इरशाद है सब्र करने वालों ही को उनका पूरा पूरा बेशुमार अजर(पुण्य) दिया जाता है, यानी ईमान और तकवा की राह में कठिनाइयां भी आएंगी और इच्छाओं का त्याग भी करना पड़ेगा, जिसके लिए धैर्य की आवश्यकता होगी, इसलिए सब्र करने वालों की फजीलत भी बयान कर दी गई कि उनको उनके सब्र के बदले में इस तरह पूरा पूरा अज्र दिया जाएगा कि उसे हिसाब के पैमानों से नापना मुमकिन ही नहीं होगा।


शैतान ज़ंजीरो में जकड़ दिए जाते हैं: हज़रत अबु हुरैरा रज़ियल्लाह तआला अन्हु ने कहा कि रसूले करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया की जब रमजान का महीना शुरू होता है तो आसमान के दरवाज़े खोल दिए जाते हैं और एक रिवायत में है कि जन्नत के दरवाज़े खोल दिए जाते हैं और जहन्नम में दरवाज़े बंद कर दिए जाते हैं, और शैतान ज़ंजीरो में जकड़ दिए जाते हैं और एक रिवायत में है कि रहमत के दरवाज़े खोल दिये जाते हैं,(बुख़ारी/मुस्लिम), हज़रत शैख़ अब्दुल हक़ मुहद्दिस देहलवी रहमतुल्लाह तआला अलैहि इस हदीस की शरह में लिखते हैं कि आसमान के दरवाज़े खोल दिए जाने का मतलब है लगातार रहमत का भेजा जाना और बगैर किसी रुकावट के अल्लाह की बारगाह में अम्ल का पहुँचना और दुआ क़बूल होना और,जन्नत के दरवाजे खोल दिए जाने का मतलब है अच्छे अमल की तौफ़ीक़ और हुस्ने कबूल अता फरमाना,और दोज़ख़ के दरवाजे बंद किए जाने का मतलब है रोज़ा दारों के नुफुस को बुरी बातो की आलूदगी से पाक करना और गुनाहों पर उभारने वाली चीज़ो से नजात पाना और दिल से लज़्ज़तों के हासिल होने की ख़्वाहिशों को तोड़ना,और शैतानों को ज़ंजीरों में जकड़ दिए जाने का मतलब है बुरे ख्यालों के रास्तों का बंद हो जाना।


लैलतुल कद्र: रमजान में एक रात ऐसी आती है जो हज़ार महीनों से बेहतर है हजरत अनस रजि अल्लाह वालों से रिवायत है कि रमजान मुबारक के आगमन पर एक मर्तबा रसूले पाक सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया यह जो महीना तुम पर आया है इसमें एक रात ऐसी है जो हजार महीनों से अफजल है जो जो व्यक्ति इस रात से वंचित रह गया तो गया वह सारे ही भलाई उसे वंचित रहा और इस रात की भलाई से वही व्यक्ति वंचित रह सकता है जो वास्तव में वंचित हो, (इब्ने माजह), लैलतुल क़द्र रमज़ान की आख़िरी दस दिनों की ताक़ रातों में से किसी एक रात में होती है, अतः 21, 23, 25, 27, या 29 वीं रात में इबादत करके इसे पाने का प्रयत्न करना चाहिए, इस रात में फ़रिश्ते भी आसमान से ज़मीन पर उतरते हैं और फरिश्तों के उतरने के दो मक़सद होते हैं एक ये कि इस रात में जो लोग इबादत में लगे हुए हैं तो फ़रिश्ते उनके हक में रहमत की दुआ करते हैं और दूसरा मक़सद आयते करीमा में ये बताया गया है कि अल्लाह तआला इस रात में साल भर के फैसले फरिश्तों के हवाले फरमा देते हैं, ताकि वो लोग अपने अपने वक़्त पर उन कामों को करते रहें।


जहन्नम(नर्क)से आजादी(मोक्ष): इफ्तार (व्रत तोड़ने) के समय अल्लाह ताला बंदो को जहन्नम से आजाद करताा, है इसलिए विशेष रूप से इफ्तार के समय रोजे की क़ुबूलियत, गुनाहोंकी मगफिरत, दरजात की बुलंदी, जहन्नम से आजादी और जन्नत में दाखिले की दुआ करनी चाहिए, हदीस में है "अल्लाह ताला हर इफ्तार के समय बंदो को जहन्नम से आजादी देता है(अहमद), और एक रिवायत में इस तरह है" अल्लाह ताला हर इफ्तार के समय रोजेदारों को जहन्नम से आजादी देता है यह आजादी हर रात मिलती है"(इब्ने माजह)।


दुआ की कुबूलियत : कुछ ऐसे ख़ास वक़्त और टाइम होते हैं जिन में दुआ कुबूल होती है , सही मानों में दुआ की कुबूलियत तो हर वक़्त हो सकती है जब भी पूरे दिल और यकीन के साथ अगर मांगी जाये लेकिन कुछ खास घड़ियाँ ऐसी होती हैं जिन को अल्लाह तआला ने दुआ कुबूल करने के लिए ख़ास फ़रमाया है और और जिस में दुआ रद नहीं की जातीी, इस पवित्र महीने की एक महत्वपूर्ण विषेष्हता इफ्तार(ब्रत तोड़ने के समय) दुआ की कुबूलियत है, ज़रतअबू हुरैरह रज़ि से रिवायत है के रसूलुल्लाह(सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) का इरशाद है के तीन लोगों की दुआ रद नहीं की जाती हैः (१) रोज़ेदार की दुआ, यहांतक के वह इफ़तार कर ले, (२) आदिल बादशाह की दुआ, (३) मज़लूम की दूआ(बद दुआ) अल्लाह तआला उस को बादलों के ऊपर उठा लेते हैं और उस के लिए आसमान के दरवाज़े खोल देते हैं और अल्लाह तआला फ़रमाते हैं के मेरी इज़्ज़त की क़सम ! में ज़रूर बिज़ ज़रूर मदद करूंगा, अगर चे कुछ मुद्दत के बाद ही क्युं न हो.(तिरमिजी)


आखिरी दस दिनों की विशेष इबादत: इस महीने के आखिरी दस दिनों में एक और विशेष इबादत उम्मते मुस्लिमा को प्रदान की गई है इसे ऐतिकाफ कहा जाता है, एतिकाफ का अर्थ है रुकना और ठहरना, अल्लाह की खुशी प्राप्त करने के लिए इबादत, जिक्र अज्कार करने की नियत से विषेश तरीके से एक समय के लिए मस्जिद में ठहरने का नाम एतिकाफ है,  एतकाफ में बैठने वाले को दो हज और एक उमरे का सवाब मिलता है, यह सुन्नते  मुअक्कदा अलल किफाया है, अर्थात कोई एक व्यक्ति एतिकाफ के लिए बैठता है तो सारी आबादी गुनहगार होने से बच जाती है, परंतु अगर किसी मस्जिद की आबादी से कोई एतिकाफ में नहीं बैठता है तो वह पूरी आबादी गुनहगार होती है, एतकाफ में बैठने वाला व्यक्ति फुजूल(बेकार) की बातचीत, खानपान और नींद से दूर रहने का प्रशिक्षण प्राप्त करने के साथ ही अल्लाह की इबादत, कुरान की तिलावत, तौबा की आदत एवं अपने आप को समझने का मौका प्राप्त करता है, और एतकाफ से व्यक्ति गुनाहों से दूर रहता है, अतः जो व्यक्ति रमज़ान की अंतिम दहाई में एतिकाफ करने में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का अनुसरण करना चाहता है तो वह रमज़ान की इक्कीसवीं रात को सूरज डूबने से पहले मस्जिद में प्रवेश कर जाए, ताकि उसमें से कोई चीज़ उस से न छूटने पाए, और ईद की रात सूरज डूबने के बाद बाहर निकले, चाहे महीना पूरा हुआ हो या कम हो गया हो, और सर्वश्रेष्ठ यह है कि वह ईद की रात मस्जिद में ठहरा रहे यहाँ तक कि उसमें ईद की नमाज़ पढ़ ले, या उस से निकल कर ईद की नमाज़ के लिए ईदगाह जाए यदि लोग ईदगाह में नमाज़ पढ़े।

अब इतने महत्वपूर्ण विशेषताओं फजाइल व बरकात एवं अजमतो पर आधारित पवित्र महीने को बेकार के कामों में लिप्त होकर या खेल कूद और सुस्ती व काहिली में ना विता कर उस के एक-एक क्षण और बहुमूल्य समय को प्रयोग में लाते हुए निम्न कार्य करके अपनी दुनिया और आखिरत के जीवन को सफल बनाने के लिए पूरी तरह से फायदा उठाने का प्रयत्न करना चाहिए, परमेश्वर हम सबको इस की तौफीक अता फरमाए, आमीन।


रोजा रखना(सौम): इस पवित्र महीने की विशेष और महत्वपूर्ण इबादत है रोजे रखना, इसकी बड़ी फजीलत और बड़ा सवाब है, हजरत अबू हुरैरा रजि अल्लाहु अन्हु फरमाते हैं कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलेही वसल्लम ने फरमाया कि "हर अमल आदमी का दोगुना होता है, इस तरह की एक नेकी दस तक हो जाती है यहां तक कि सात सौ तक बढ़ती, है और अल्लाह ताला ने फरमाया है कि मगर रोजा खास मेरे लिए है और मैं खुद उसका बदला देता हूं, इसलिए कि बंदा मेरा अपनी इच्छाएं और खाना मेरे लिए छोड़ देता है, और रोजेदार को दो खुशियां हैं एक खुशी उसके इफ्तार के वक्त, दूसरी खुशी मुलाकाते परवरदिगार के वक्त, और रोजेदार के मुंह की बू अल्लाह ताला को मुश्क से ज्यादा पसंद है, (मुस्लिम), दूसरी हदीस में है हजरत अबू हुरैरा बयान करते हैं कि रसूलअल्लाह सल्लल्लाहू अलेही वसल्लम ने फरमाया "जिसने ईमान की अवस्था में और सवाब की नियत से रमजान के रोजे रखे उसके पिछले गुनाह माफ कर दिए जाते हैं (बुखारी), इसलिए रोजे में खाने पीने से रुक जाने के साथ-साथ हराम चीजें, झूठ, चुगली, गीबत आदि से रुक जाना भी जरूरी है, ताकि रमजान और अन्य औकात में स्पपष्टअन्तर हो, अन्यथा कहीं ऐसा ना हो कि रोजा रखने की सूरत में हमें केेवल भूख प्यास के सिवा कुछ नसीब ना हो।


कयामे रमजान (तरावीह तहज्जुद इत्यादि): रमजान में कयाम करना अन्य दिनों में कयाम करने से अफजल है और उसका सवाब रोजे के समान है, अगर ईमान और एहतिसाब के साथ किया जाए, नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का फरमान है, "जो रमजान में ईमान और सवाब की उम्मीद के साथ कयाम करता है उसके सारे गुनाह माफ कर दिए जाते हैं (मुस्लिम), और अल्लाह ताला का फरमान है "रहमान के सच्चे बंदे वह है जो जमीन पर धैर्य के साथ चलते हैं और जब जाहिल लोग उनसे बातें करने लगते हैं तो वह कह देते हैं कि सलाम है, (सलाम से तात्पर्य यहां झगड़े से बचने के लिए उनकी अनदेखी करना है) और जो अपने रब के सामने सजदे और कयाम करते हुए रातें गुजार देते हैं (अल फुरकान:६३), हजरत साइब इब्ने यजीद रजि अल्लाहु अन्हु फरमाते हैं कि अमीरुल मोमिनीन हजरत उमर बिन खत्ताब रजििअल्लाहु के शासनकाल में रमजान उल मुबारक के महीने में सहाबा और ताबईन बीस रकात तरावीह  पढ़ते थे, और वह सौ सौ आयतेे पढ़ा करते थेे, और अमीरुल मोमिनीन हजरत उस्मान बिन अफ्फान रजिअल्लाह अन्हु के शाासनकाल बहुत देर तक कयाम करने के कारण हम अपनी लाठियों पर टेक लगाया करते थे (सुनन बैहकी)।


सदकात एवं जकात: हज़रत इब्ने अब्बास रजि अल्लाहु अन्हुमा से रिवायत है कि रसूलअल्लाह सल्लल्लाहू अलेही वसल्लम सब लोगों से ज्यादा दानी थे, और रमजान में दूसरे औकात के मुकाबले में जब जिब्राइल अलैहिस्सलाम आप सल्लल्लाहो वाले वसल्लम से मिलते बहुत ही ज्यादा दानशीलता फरमाते, जिब्राइल अलैहिस्सलाम रमजान की हर रात में आप सल्लल्लाहो सल्लम से मुलाकात करते और आप सल्लल्लाहो वाले वसल्लम के साथ कुरान का दौर करते, अर्थात नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम लोगों को भलाई पहुंचाने में बारिश लाने वाली हवा से भी ज्यादा दान शीलता फरमाते थे (बुखारी), आप सल्लल्लाहो अलेही वसल्लम हर प्रकार से तमाम मानव जाति में बेहतरीन दानी थे, आप सल्लल्लाहो अलेही वसल्लम की दान शीलता की मिसाल बारिश लाने वाली हवाओं से दी गई जो बहुत ही योज्ञ्य है, रहमत की बारिश से जमीन हरी-भरी हो जाती है, आप सल्लल्लाहो अलेही वसल्लम की दानशीलता से मानव जाति की उजड़ी हुई दुनिया आबाद हो गई, हर तरफ हिदायत के दरिया बहने लगे, लोग अपने पैदा करने वाले को पहचानने लगे और लोगों के चरित्र अच्छे हो गए, आप सल्लल्लाहो अलेही वसल्लम का अनुसरण करते हुए हमें भी दानशीलता दिखानी चाहिए, वििशेष रूप से  वर्तमान लाकडाउन की स्थिति में इसका महत्व और बढ़ जाता है, अतः हम सबको अपने पड़ोसियों गरीबों मजदूरों और योग्य लोगों की अपनी जकात और सत्कार से मदद करनी चाहिए।


खाना खिलाना: और अल्लाह ताला की मोहब्बत में मिस की यतीम और कैदियों को खाना खिलाते हैं हम तो तुम्हें सिर्फ अल्लाह ताला की आज्ञा के लिए खिलाते हैं ना तुमसे बदला चाहते हैं न शुक्रगुजारी(अल इंसान:८,९), खाने की मोहब्बत के बावजूद अल्लाह की आज्ञा के लिए योग्य लोगों को खाना खिलाते हैं, कैदी अगर गैर मुस्लिम हो तब भी उसके साथ अच्छा व्यवहार करने का हुक्म, है जैसे कि जंग-ए-बदर के काफिर कैदियों के संबंध में नबी सल्लल्लाहू सल्लम ने सहाबा को हुक्म दिया कि उनकी इज्जत करो, चुनान्चे सहाबा पहले उन को खिलाते थे बाद में खुद खाते थे, इसी तरह नौकर चाकर भी इसी के अंतर्गत आते हैं जिनके साथ अच्छे बर्ताव की ताकीद की गई है, आप सल्लल्लाहो सल्लम की आखिरी वसीयत यही थी कि नमाज और अपने गुलामों का ख्याल रखना, एक रिवायत में है हजरत अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास रजि अल्लाहु अन्हुमा से की एक दिन एक आदमी ने नबी ए करीम सल्लल्लाहो वाले वसल्लम से पूछा कि कौन सा इस्लाम बेहतर है आपने फरमाया कि तुम खाना खिलाओ और जिसको पहचानो उसको भी और जिसको ना पहचानो उसको भी सलाम करो यानी सब को सलाम करो (बुखारी), गरीबों और मिस्कीन ओं को खाना खिलाना इस्लाम में एक उच्च उच्च स्तर की नेकी माना गया हैै, इस हदीस से यह भी पता चलता है कि इस्लाम का मंशा यह है कि मानव जाति में भूख एवं तगदसती का इतना मुकाबला किया जाए कि कोई भी इंसान भूख का शिकार ना हो सके, और अमन-चैन एवं शान्ति को इतना फैलाया जाए कि बद अमनी का एक मामूली सा डर बाकी न रह जाए, अतः हम सबको अपनी औकात हैसियत और  जानकारी के अनुसार के हर भूखे को खाना खिलाने की फिक्र करनी चाहिए, इसके लिए अमीर और गरीब  नहीं देखना चाहिए, अलबत्ता गरीबों मिस्कीनो मोहताजो और पड़ोसियों का विशेष ध्यान रखना चाहिए।


कुरान करीम और रमजान: कुरान करीम को रमजान उल मुबारक से विशेष संबंध और गहरी समानता हैै, जैसे कि रमजान उल मुबारक में कुरान अवतरित हुआ, नबी सल्लल्लााहूअलेही  वसल्लम रमजान उल मुबारक में तिलावते कुरान दूसरे दिनों की तुुलना में ज्यादा करते थे, हजरत जिब्राइल अलैहिस्सलाम रमजान मुबारक में नबी अकरम सल्लल्लाहो वसल्लम को कुरान करीम का दौर कराते थे, इसी प्रकार तरावीह में खत्म कुरान का एहतमाम करना, सहाबा किराम रजि अल्लाह अन्हुम और बुजुरगाने दीन का रमजान में तिलावत का विशेष एहतमाम करना यह सारी बातें इस विशेषता को दर्शाती हैं, इस पवित्र माह में अधिक से अधिक कुरान की तिलावत में व्यस्त रहना चाहिए, निसंदेह कुरान मजीद की तिलावत अल्लाह तालाको बेहद प्रिय है उसका पढ़ना और सुनना दोनों सवाब का कार्य है, उसके एक-एक शब्द पर पुण्य का वादा है, परंतु यह भी वास्तविकता है कि उसका समझना उसकी गहराई में जाना और उस पर अमल करना निहायत ही आवश्यक है, और वास्तव में कुरान के अवतरण का यही मकसद है,  अल्लाह तआला का इरशाद है, "यह बड़ी बरकत वाली किताब है जो (ए नबी) हमने तुम्हारी तरफ अवतरित की है ताकि यह लोग उसकी आयात पर गौर करें और अक्ल व  फिक्र रखने वाले इससे सबक लें, अतः इस रमजान मुबारक में हम सब यह वादा करें कि कई मर्तबा कुरान खत्म करने की जगह कुरान करीम को ठहर ठहर कर समझ कर पढ़ने का एहतमाम करेंगे, और कई मर्तबा देखकर कुरान को मुकम्मल करने से एक मर्तबा कुरान को उसके अनुवाद और व्याख्याओं के साथ पढ़ने की कोशिश करेंगे, यदि परमेश्वर ने चाहा तो हमें इससे बहुत ज्यादा फायदा होगाा, कुरान को ऐसे पढ़ने का प्रयत्न करेंगे जैसे हम अल्लाह ताला से बात कर रहे हो, जहां नेकियो और अच्छाइयों का वर्णन होगा वहां हम यह आशा करेंगे कि हम उन नेकियो और अच्छाइयों को अपनाएं और जहां बुराइयों और गुनाहों का वर्णन होगा वहां हमारी इच्छा यह होगी कि हम उन बुराइयों और गुनाहों से बच जाएं और अल्लाह से इन बुराइयों और गुनाहों से बचने की दुआ का एहतमाम भी करेंगे, नेक और अच्छे लोगों का वर्णन आएगा तो उनमें शामिल होने की इच्छा करेंगे बुरे लोगों का वर्णन होगा तो उन उन से दूर रहने की दुआ करेंगे।


फज्र की नमाज़ के पश्चात सूर्योदय तक बैठना: हजरत जाबिर बिन समरह रजियल्लाहु अन्हु फरमाते हैं कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम जब सुबह की नमाज पढ़ लेते तो अपनी जगह पर बैठे रहते जब तक कि सूर्य अच्छी तरह ना निकल आता (मुस्लिम), हजरत अनस बिन मालिक रजिअल्लाहु अन्वाहु से रिवायत है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलेही वसल्लम ने फरमाया जो शख्स जमात के साथ फजर की नमाज अदा करें और फिर बैठकर अल्लाह ताला का जिक्र करता रहे यहां तक कि सूर्य उदय हो जाए फिर दो रकात नमाज अदा करे तो उसके लिए पूूर्ण पूर्ण पूूर्ण  हज उमरा करने का सवाब होगा (तिर्मीजी), जब यह साधारण दिनों की बात है तो रमजान मुबारक जैसे पवित्र महीने में इन नेकियों के क्या ही कहने, अतः हमें भी यह कार्य करके इस तरह के पुण्य को प्राप्त करने काा प्रयत्न करना चाहिए।


एतिकाफ (एकांतवास): परमेश्वर की उपासना के लिए निर्धारित समय में मस्जिद में ठहरने और अपने ऊपर मस्जिद को अनिवार्य करने को एतिकााफ कहते हैं, यह फजीलत के कामों और बड़ी इबादत में से एक इबादत है, एतिकाफ हर वक्त सुन्नत है और सबसे बेहतर रमजान के आखिरी दस दिनों में इतिकाफ करना है, क्योंकि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलेही वसल्लम रमजान के आखिरी दस दिनों में हमेशा एतिकाफ  किया करते थे (जादुल मआद), हजरत आयशा रजि अल्लाह ताला अन्हा फरमाती हैं कि रसूल अल्लाह सल्लल्लाहो अलेही वसल्लम इस फानी दुनिया से पर्दा फरमाने तक रमजान के आखिरी दस दिनों में ऐतिकाफ किया करते थे और उनके बाद उनकी अज्वाजे मुतह्हरात (पत्नियां) ऐतिकाफ किया करती थी (बुखारीी,  हजरत अबू हुरैरा रजिअल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि रसूलअल्लाह सल्लल्लाहू अलेही वसल्लम हर साल रमजान में दस दिन का ऐतिकाफ किया करते थे लेकिन जिस साल आप सल्लल्लाहो वाले वसल्लम  उसदुनिया से पर्दा फरमाया उस साल आप सल्लल्लाहु अलैहि सल्लम ने बीस दिन का ऐतिकाफ किया था (बुखारीी,  एतिकाफ की हिकमत यह है कि इसके द्वारा आदमी कुछ समय के लिए दुनिया से कट जाता है, दुनिया और दुनिया वालों के साथ व्यस्तता से बच जाता हैै, और अल्लाह की उपासना के लिए एकांतमय हो जाता है, रब को राजी करने वाले कार्यों में व्यस्त होकर नाफरमानी और अल्लाह को नाराज कर देने वाले कार्य से बच जाता है, इसलिए हमें भी समय निकाल कर अपने दिल को अल्लाह की इबादत के लिए लगा देना चाहिए।


उमरह यात्रा: अल्लाह के पवित्र घर की जियारत की तमन्ना किसे नहीं होगीी, इसलिए अगर अल्लाह ने धन दौलत दिया है और कोई कठिनाई भी नहीं है तो इस महीने में उमरे की अदायगी का एहतमाम करें और उसके लिए पहले से तैयारी करें, इसकी बड़ी फजीलत और बड़ा सवाब है, हजरत अब्दुल्लाह इब्ने उमर रजि अल्लाह अन्हुमा ने फरमाया कि सक्षम व्यक्ति पर हज और उमरा वाजिब, है इब्ने अब्बास रजि अल्लाह अन्हुमा ने फरमाया कि किताबउल्लाह में उमरा हज के साथ आया है "और पूरा करो हज और उमरा को अल्लाह के लिए" (बुखारी), हजरत अबू हुरैरा रजि अल्लाह अन्हहु से रिवायत है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलेही वसल्लम ने फरमाया एक उम्रह के बाद दूसरा अमरा दोनों के दरमियान के गुनाहों का कफ्फाराा है, और हज मबरूर का बदला जन्नत के सिवा कुछ नहीं (बुखारी), यह तो साधारण दिनों की बात है रमजान उल मुबारक में इसकी अहमियत का अंदाजा इस हदीस से होता है कि माहे मुकद्दस में उमरे की अदायगी किस कदर पुण्य एवं सवाब रखती है, अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास रजि अल्लाह अन्हुमा से रिवायत है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलेही वसल्लम ने एक अंसारी महिला (उम्मेे सनान रजि अल्लाह अन्हा) से (इब्ने अब्बास रजि अल्लाह अन्हुमा ने उनका नाम बताया था लेकिन मुझे याद ना रहा) पूछा कि तू हमारे साथ हज क्यों नहीं करती वह कहने लगी कि हमारे पास एक ऊंट था जिस पर अबू फुलाँ (उसका पति) और उसका बेटा सवार होकर हज के लिए चल दिए, और एक ऊंट उन्होंने छोड़ा है जिससे पानी लाया जाता है, आप सल्लल्लाहो सल्लम ने फ़रमाया कि अच्छा जब रमजान आए तो उमरा कर लेना क्योंकि रमजान का उमरा एक हज के बराबर होता है या इस जैसी कोई बात आप सल्लल्लाहो सल्लम ने फ़रमाय (बुखारी)।
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