Tuesday, May 12, 2020

अंतिम अशरे(दस दिनों) की दो महत्वपूर्ण इबादते

जफर अहमद खान
रमजानुल मुबारक एक पवित्र और बरकत वाला महीना है, इसे बहुत सारी विशेषताएं और कुछ प्रमुख गुण प्राप्त हैं, जिसका अंदाजा प्रेषित मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैही वसल्लम की हदीस से लगाया जा सकता है, हजरत अबू हुरैरा रजिअल्लाहू अन्हो का वर्णन है कि नबी ए करीम सल्लल्लाहू अलेही वसल्लम ने फरमाया "जो व्यक्ति ईमान की अवस्था में पुण्य की नियत से रमजान के रोजे रखता है उसके पिछले पाप बख्श दिए जाते हैं", रमजान का एक-एक क्षण अत्यंत महत्वपूर्ण और सआदतो वाला है, अर्थात अन्य ग्यारह माह मिलकर इसकी बराबरी नहीं कर सकते, अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम रमज़ान की अंतिम दस रातों में नमाज़, क़ुर्आन की तिलावत और दुआ में जितना परिश्रम और संघर्षकरते थे उतना परिश्रम संघर्ष उनके अलावा अन्य रातों में नहीं करते थे। इमाम बुखारी और इमाम मुस्लिम ने आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा से रिवायत किया है कि : "जब रमज़ान की अंतिम दस रातें प्रवेश करती थीं तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम रात को (इबादत करने के लिए) जागते थे औ अपने परिवार को भी (इबादत के लिए) बेदार करते थे और तहबंद कस लेते थे।" (अर्थात संभोग से दूर रहते थे, या इबादत में कड़ा परिश्रम करते थे), तथा अहमद और मुस्लिम की रिवायत में है कि : "आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अंतिम दस रातों में (इबादत करने में) जो परिश्रम और संघर्षकरते थे वह उनके अलावा अन्य रातों में नहीं करते थे।", हम यहां इस पवित्र महीने के अन्तिम अशरे(दस दिनों) की दो महत्वपूर्ण इबादत को संक्षेप में जानने का प्रयास करेंगे इन्शाअल्लाह।

        ऐतिकाफ(एकांतवास): पहली इबादत जो इस महीने के आखिरी दस दिनों में उम्मते मुस्लिमा को प्रदान की गई है उसे ऐतिकाफ कहा जाता है, एतिकाफ का अर्थ है रुकना और ठहरना, अल्लाह की खुशी प्राप्त करने के लिए इबादत, जिक्र अज्कार करने की नियत से विषेश तरीके से एक समय के लिए मस्जिद में ठहरने का नाम एतिकाफ है,  एतकाफ में बैठने वाले को दो हज और एक उमरे का सवाब मिलता है, यह सुन्नते  मुअक्कदा अलल किफाया है, अर्थात कोई एक व्यक्ति एतिकाफ के लिए बैठता है तो सारी आबादी गुनहगार होने से बच जाती है, परंतु अगर किसी मस्जिद की आबादी से कोई एतिकाफ में नहीं बैठता है तो वह पूरी आबादी गुनहगार होती है, एतकाफ में बैठने वाला व्यक्ति फुजूल(बेकार) की बातचीत, खानपान और नींद से दूर रहने का प्रशिक्षण प्राप्त करने के साथ ही अल्लाह की इबादत, कुरान की तिलावत, तौबा की आदत एवं अपने आप को समझने का मौका प्राप्त करता है, और एतकाफ से व्यक्ति गुनाहों से दूर रहता है,

            एतिकाफ हर वक्त सुन्नत है और सबसे बेहतर रमजान के आखिरी दस दिनों में इतिकाफ करना है, क्योंकि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलेही वसल्लम रमजान के आखिरी दस दिनों में हमेशा एतिकाफ  किया करते थे (जादुल मआद), हजरत आयशा रजि अल्लाह ताला अन्हा फरमाती हैं कि रसूल अल्लाह सल्लल्लाहो अलेही वसल्लम इस फानी दुनिया से पर्दा फरमाने तक रमजान के आखिरी दस दिनों में ऐतिकाफ किया करते थे और उनके बाद उनकी अज्वाजे मुतह्हरात (पत्नियां) ऐतिकाफ किया करती थी (बुखारीी,  हजरत अबू हुरैरा रजिअल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि रसूलअल्लाह सल्लल्लाहू अलेही वसल्लम हर साल रमजान में दस दिन का ऐतिकाफ किया करते थे लेकिन जिस साल आप सल्लल्लाहो वाले वसल्लम  उसदुनिया से पर्दा फरमाया उस साल आप सल्लल्लाहु अलैहि सल्लम ने बीस दिन का ऐतिकाफ किया था (बुखारी),

            अतः जो व्यक्ति रमज़ान की अंतिम दहाई में एतिकाफ करने में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का अनुसरण करना चाहता है तो वह रमज़ान की इक्कीसवीं रात को सूरज डूबने से पहले मस्जिद में प्रवेश कर जाए, ताकि उसमें से कोई चीज़ उस से न छूटने पाए, और ईद की रात सूरज डूबने के बाद बाहर निकले, चाहे महीना पूरा हुआ हो या कम हो गया हो, और सर्वश्रेष्ठ यह है कि वह ईद की रात मस्जिद में ठहरा रहे यहाँ तक कि उसमें ईद की नमाज़ पढ़ ले, या उस से निकल कर ईद की नमाज़ के लिए ईदगाह जाए यदि लोग ईदगाह में नमाज़ पढ़े।

           एतिकाफ की हिकमत यह है कि इसके द्वारा आदमी कुछ समय के लिए दुनिया से कट जाता है, दुनिया और दुनिया वालों के साथ व्यस्तता से बच जाता हैै, और अल्लाह की उपासना के लिए एकांतमय हो जाता है, रब को राजी करने वाले कार्यों में व्यस्त होकर नाफरमानी और अल्लाह को नाराज कर देने वाले कार्य से बच जाता है, इसलिए हमें भी समय निकाल कर अपने दिल को अल्लाह की इबादत के लिए लगा देना चाहिए।

            लैलतुल कद्र: दूसरी इबादत लैलतुल कद्र है, रमजान में एक रात ऐसी आती है जो हज़ार महीनों से बेहतर है, अल्लाह तआला का इर्शाद है, हमने इस(कुरआन) को क़द्र की रात में अवतरित किया, और तुम्हें क्या मालूम कि क़द्र की रात क्या है? क़द्र की रात उत्तम है हज़ार महीनों से, उसमें फ़रिश्तें और रूह (जिब्राइल अलैहिस्सलाम) महत्वपूर्ण मामलें में अपने रब की अनुमति से उतरते है, वह रात पूर्णतः शान्ति और सलामती है, उषाकाल के उदय होने तक(सूरह अल कद्र),

          एक बार रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने सहाबए किराम से बनी इसराइल के कुछ लोगों की बहुत लम्बी आयु तक इबादत करने का ज़िक्र किया, तो सहाबा को ख़याल हुआ कि उनकी आयु ज़्यादा लम्बी होती थीं इसलिए उन्होंने ज़्यादा दिनों तक इबादत की, हमारी उम्रें इतनी नहीं होती हैं इसलिए हम लोग इससे वंचित हैं, तब ये सूरह नाजिल हुई और इसमें बताया गया कि इस उम्मत को ऐसी रात दी गयी है जिस में इबादत करने का सवाब आम हज़ार महीनों की इबादत से ज़्यादा है

           सूरह की अंतिम आयत का अर्थ इस्लामिक विद्वानों ने यह लिखा है कि इस पूरी की पूरी रात में खैरो सलामती है यानि इस रात के जिस लम्हे में भी कोई इबादत करेगा, इंशाअल्लाह इस की फ़ज़ीलत को प्राप्त कर लेगा, यहांतक कि केवल मगरिब और ईशा की नमाज़ भी जमात से पढ़ ले, तब भी शबे क़द्र का अपना हिस्सा ज़रूर पायेगा और फिर इस रात की सलामती सुबह होने तक रहती है,

          नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने ईमान के साथ और अज्र व सवाब (पुण्य) की नीयत से क़द्र की रात (शबे क़द्र) को क़ियाम करने (अर्थात इबादत में बिताने) पर उभारा और बल दिया है, अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से रिवायत किया है कि आप ने फरमाया : "जिस व्यक्ति ने ईमान के साथ और अज्र व सवाब की आशा रखते हुए लैलतुल क़द्र को क़ियामुल्लैल किया (अर्थात् अल्लाह की इबादत में बिताया) तो उसके पिछले गुनाह क्षमा कर दिए जायेंगे।" (सहीह बुखारी व मुस्लिम)

          हजरत अनस रजियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि रमजान मुबारक के आगमन पर एक मर्तबा रसूले पाक सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया यह जो महीना तुम पर आया है इसमें एक रात ऐसी है जो हजार महीनों से अफजल है जो जो व्यक्ति इस रात से वंचित रह गया तो गया वह सारे ही भलाई उसे वंचित रहा और इस रात की भलाई से वही व्यक्ति वंचित रह सकता है जो वास्तव में वंचित हो, (इब्ने माजह), लैलतुल क़द्र रमज़ान की आख़िरी दस दिनों की ताक़ रातों में से किसी एक रात में होती है, अतः 21, 23, 25, 27, या 29 वीं रात में इबादत करके इसे पाने का प्रयत्न करना चाहिए, इस रात में फ़रिश्ते भी आसमान से ज़मीन पर उतरते हैं और फरिश्तों के उतरने के दो मक़सद होते हैं एक ये कि इस रात में जो लोग इबादत में लगे हुए हैं तो फ़रिश्ते उनके हक में रहमत की दुआ करते हैं और दूसरा मक़सद आयते करीमा में ये बताया गया है कि अल्लाह तआला इस रात में साल भर के फैसले फरिश्तों के हवाले फरमा देते हैं, ताकि वो लोग अपने अपने वक़्त पर उन कामों को करते रहें।
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